जीवन में योग क्यों आवश्यक है जाने ज्योतिषाचार्य अंजलि गिरधर से

हम ऋषिओं की संतान है हमारे ऋषियों ने हमें ज्ञान के अथाह भंडार के साथ योग रूपी ज्ञान भी स्थानांतरित किया हैं।
"समत्वं योग उच्यते"   गीता की यह यौगिक परिभाषा सारगर्भित है। जहाँ संतुलन,सामंजस्य,अद्वंद्व ,लयबद्धता है वहाँ योग हैं इसके विपरीत जहाँ द्वंद हैं, असन्तुलन है,असामंजस्य हैं, असंगति है _वहाँ रोग है व्याधि हैं।
योगी अपने आप से,शरीर और मन से,प्राणशक्ति और मनस शक्ति से,अपने चारों ओर की परिस्थितियों और वातावरण से और अंततः समष्टि से समत्व स्थापित कर लेता हैं इसके विपरीत जब शरीर का मन से,एक अंग का दूसरे अंग से,एक समुदाय का दूसरे समुदाय से या आस पास के वातावरण  और व्यक्तियों से सामंजस्य नही बैठता तब शारीरिक, मानसिक द्वंद शुरू होता हैं जो सभी रोगों का मूल कारण बनता है ।
योगी सच्चे अर्थों में स्वस्थ होता है और अपने आप मे स्थित होता हैं और रोगी इसके विपरीत ।
प्रत्येक व्यक्ति  सांसारिक आकर्षण में बंधा होता है आकर्षण होनागलत नही क्योंकि आकर्षण के मूल में  उत्साह हैं आकर्षण लोभ को जन्म देता है।लोभ करना चाहिए योग का क्योंकि योग वो सब दे सकता है जो आप चाहते हो।
आप चाहते हो "मैं सुखी रहूँ"  और "मेरा परिवार सुखी रहे"जब हर परिवार सुखी है तो देश भी सुखी होगा।
योग व्यक्ति को स्वस्थ रखता है।स्वास्थ्य हैं तो सब सुख हैं इसलिए कहा गया है पहला सुख निरोगी काया।योग व्यक्ति के गुणों को विकसित करता है।
क्षमावृति क्रोध को अपने अंदर सम लेती है।निष्काम कर्म तथा त्याग से लोभ तथा स्वस्रथ समाप्त होता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार योग के आठ अंग बताये हैं।
1. "यम" समाज के उद्धार के लिए
2. "नियम"अपने व्यवहार को अच्छा बनाने के लिए
3. "आसन"शरीर को स्थिर रखने की स्थिति या किर्या
4."प्रणायाम" मानसिक विकार दूर करने के लिए।
5." प्रत्याहार" इन्द्रियों को  अंतर्मुखी बनाने के लिए।
6."धारणा" एकाग्रता बढ़ाने के लिए।
7."ध्यान"चित को शुद्ध करने के लिए।
8."समाधि" योग की अंतिम अवस्था

ज्योतिषाचार्य अञ्जलि गिरधर ,दिल्ली
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